
जमशेदपुर: हर वर्ष 15 जून को विश्वभर में विश्व वरिष्ठ नागरिक दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस (WEAAD) मनाया जाता है. यह दिन वृद्धजनों के साथ हो रहे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध वैश्विक चेतना लाने का प्रयास है. भारत जैसे देश में जहां पारिवारिक संरचना मजबूत मानी जाती है, वहां भी बुज़ुर्ग महिलाओं और पुरुषों की स्थिति कई बार चिंताजनक हो जाती है.
नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023: क्या कहता है नया कानून?
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, ने पूर्ववर्ती दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का स्थान लिया है. इसके धारा 144(1)(d) में स्पष्ट किया गया है कि यदि माता-पिता जीवनयापन में असमर्थ हों, तो संतान उनके भरण-पोषण के लिए बाध्य है.
उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि यह दायित्व पुत्र और पुत्री, दोनों पर समान रूप से लागू होता है. एक विवाहित बेटी भी अपने माता-पिता की जिम्मेदारी से अलग नहीं हो सकती.
सिर्फ कानूनी नहीं, नैतिक जिम्मेदारी भी
न्यायपालिका और भारतीय संस्कृति दोनों यह मानते हैं कि वृद्ध माता-पिता की देखभाल सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है. यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15(3) और अनुच्छेद 39 के अनुरूप है, जो महिलाओं और बुज़ुर्गों को विशेष संरक्षण देने की बात करता है.
क्या कहती है हिंदू विधि?
हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के अनुसार भरण-पोषण में भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के साथ-साथ अविवाहित पुत्री के विवाह का खर्च भी शामिल है.
धर्मशास्त्रों के अनुसार भी माता-पिता की सेवा और देखभाल प्रत्येक संतान का व्यक्तिगत कर्तव्य है. मिताक्षरा प्रणाली में भी संपत्ति के बिना माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी तय की गई है.
इस्लामिक कानून में क्या है प्रावधान?
हानाफ़ी मतानुसार, माता-पिता की देखभाल पुत्र और पुत्री दोनों की जिम्मेदारी है. इस्लाम में माँ को प्राथमिकता दी जाती है. यदि संतान के पास पर्याप्त संसाधन हों, तो वह इस कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकती.
सिख, ईसाई और पारसी समुदाय
सिखों के पास पृथक पारिवारिक कानून नहीं है, अतः वे हिंदू विधि के अंतर्गत आते हैं. ईसाई और पारसी समुदाय के बुज़ुर्ग भी भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 या अन्य सामान्य कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं.
वरिष्ठ नागरिकों के लिए विशेष कानून: अधिनियम 2007
वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 के अनुसार:
माता-पिता में जैविक, दत्तक व सौतेले अभिभावक शामिल होते हैं.
संतान या अन्य संबंधित व्यक्ति उनकी देखभाल के लिए उत्तरदायी होते हैं.
जानबूझकर बुज़ुर्ग को छोड़ना अपराध है, जिसकी सजा तीन माह की जेल, ₹5000 तक जुर्माना, या दोनों हो सकती है.
यह अपराध जमानती और संज्ञानात्मक माना जाता है.
राज्य सरकारों को इसके प्रभावी कार्यान्वयन की जिम्मेदारी दी गई है.
कानून तो है, लेकिन क्या हम जागरूक हैं?
भारत में वृद्ध महिलाओं की उपेक्षा या हिंसा एक नैतिक अपराध ही नहीं, बल्कि कानूनी दंडनीय कृत्य भी है. चाहे संतान पुत्र हो या पुत्री, विवाह के बाद भी माता-पिता के प्रति कर्तव्य समाप्त नहीं होते.
भारतीय विधिक ढांचा आज वृद्धजनों के अधिकारों की रक्षा के लिए न केवल सजग है, बल्कि स्पष्ट और सशक्त भी है. अब यह समाज की जिम्मेदारी है कि वह कानून के साथ अपनी संवेदनशीलता और नैतिकता को भी जागृत रखे.
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