बुद्ध पुर्णिमा पर विशेष : सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध तक का सफर—-

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भगवान  बुद्ध ने आध्यात्मिक आवश्यकता को सर्वोपरि माना जिसके आधार पर उन्हें  ऐसी विभूतियाँ उपलब्ध हुई, जिसके द्वारा वे सामान्य व्यक्तियों की श्रेणी से ऊपर उठकर भगवान बन गए। मनुष्य वस्तुतः विचारों का पुंज हैं। उसके दृष्टिकोण के आधार पर ही उसके बाहरी स्वरूप व आंतरिक स्वरूप का  निर्माण होता है। आस्थाएं एवं मान्यताएं यदि सही बनती चली जाय तो परिस्थितियां कैसी भी हो मान-वीय उत्कर्ष का विकास होकर ही रहता है, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। जीवन एक चुनौती है, एक संग्राम है। इसे इसी रूप में स्वीकारने के अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा नहीं हैं। अच्छा हो हम जीवन को इसी रूप में अंगीकार कर जीवन को एक कलाकार की  भांति जियें। हँसती-हँसाती, हल्की-फुल्की जिंदगी जीते हुए औरों को अधिकाधिक सुख बांटते चलें। दुखों को,कष्टों को तप मानकर सहन करे,  साथ ही अपना सौभाग्य मानें।जीवन जीने की यही सही रीति एवं नीति हैं।गौतम बुद्ध ने संसार में सबसे पहला विश्व धर्म साबित किया जो मनुष्य मात्र के लिए था, उसने लोगों को पवित्र जीवन का माध्यम मार्ग  बनाया। सब प्रकार के ढोंग और अंधविश्वासों को हटाकर बुद्धि विवेक और प्रेम के आधार पर सरल पवित्र जीवन निर्वाह करने का आदेश दिया। वे पंडितों की भाषा छोड़कर सर्वसाधारण भाषा में उपदेश देने लगे। शिक्षित, अशिक्षित, धनी और  निर्धन सबके लिए उनकी वाणी तीर्थ बन गई।”
567 ईसा पूर्व हुआ था जन्म
बुद्ध, या सिद्धार्थ गौतम, का जन्म लगभग 567 ईसा पूर्व, हिमालय की तलहटी के ठीक नीचे एक छोटे से राज्य में हुआ था। उनके पिता शाक्य वंश के मुखिया थे। ऐसा कहा जाता है कि उनके जन्म से बारह साल पहले ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की थी कि वह एक सार्वभौमिक राजा या एक महान ऋषि बनेंगे।ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत अनेक छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था। किसी-किसी राज्य पर एक राजा का अधिकार था। ऐसे राज्य सोलह थे और इन्हें जनपद कहा जाता था। जिन राज्यों पर किसी एक राजा का अधिकार न था वे संघ या गण कहलाते थे। उस समय अंग, मगध, काशी, कोशल, वणिज, मल्ल, चेदी, वत्स, कुरू, पंचाल, मत्स्य, सौरसेन, अष्मक, अवन्ति, गन्धार तथा कम्बोज जनपद थे। कपिलवस्तु के शाक्य, पावा तथा कुसीनारा के मल्ल, वैशाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह, रामगाम के कोलीय, अल्लकप्प के बूलि, केसपुत्त के कालाम, पिप्पलीवन के मौर्य तथा सुसुमगिरी के भग्ग (भर्ग) संघ या गण की श्रेणी में आते थे।
गणराज्यों की शासन-व्यवस्था लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों पर आधारित थी। इनका शासक जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति होता था, जिसे राजा कहा जाता था। समस्त प्रश्नों का हल परिषद द्वारा किया जाता था। गणराज्य के अन्य प्रमुख अधिकारी उप-सभापति, पुरोहित आदि थे। शासन के तीन प्रमुख विभाग थे—सेना, अर्थ और न्याय । सेना का प्रमुख अधिकारी सेनापति कहलाता था। अर्थ-विभाग का प्रमुख अधिकारी भण्डगारिक कहलाता था। न्याय-व्यवस्था क्षमता एवं स्वतंत्रता के आधार पर अवलंबित थी। न्यायालय विभिन्न श्रेणियों में विभक्त थे। नगर की व्यवस्था का भार नगरगुत्तिक (नगर के रक्षक) के ऊपर था। तथा ग्राम भोजक ग्राम का शासक था।
कपिलवस्तु के शाक्यों के गणतंत्र में कई राजपरिवार थे तथा एक-दूसरे के बाद क्रमशः शासन करते थे, राज परिवार का मुखिया राजा कहलाता था। शाक्य राज्य भारत के उत्तर पूर्व कोने में था। यह एक स्वतंत्र राज्य था किंतु बाद में कोशल नरेश (संभवतः प्रसेनजित) ने इसे अपने शासन-क्षेत्र में शामिल कर लिया था। कपिलवस्तु में जयसेन नाम का एक शाक्य रहता था। उसके पुत्र का नाम सिंह हनु था । सिंह हनु की पत्नी का नाम कच्चाना था। उसके पांच पुत्र थे- शुद्धोधन, धौतोदन, शुक्लोदन, शाक्योदन तथा अमितोदन। उसकी दो लड़कियां भी थीं-अमिता तथा प्रमिता। इनके परिवार का गोत्र आदित्य था। कपिलवस्तु के पूर्व में रामगाम के कोलीय थे। बीच में रोहिणी नदी थी जो दोनों की सीमा का भी निर्धारण का कार्य भी करती थी। शाक्यों तथा कोलीय लोगों में रोहिणी नदी के जल के लिए प्रायः झगड़े होते रहते थे। शुद्धोधन ने इस झगड़े को शांत करने के लिए ही देवदह नामक गाँव में रहने वाले अंजन की दो कन्याओं-महामाया तथा महाप्रजापति से विवाह किया था। राजा शुद्धोधन के पास बहुत बड़े-बड़े खेत तथा अनगिनत नौकर चाकर थे। कहा जाता है कि अपने खेतों को जोतने के लिए उसे एक हजार हल चलावाने पड़ते थे। ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने को थी। खेतों की जुताई का कार्य जोरों पर था। वर्षा से पहले ही यह कार्य पूर्ण होना था।
गृह त्याग कर बने बुद्ध 
शाक्य-राज्य के लोग वर्षा ऋतु के आषाढ़ महीने में एक उत्सव मनाया करते थे। इस उत्सव में सभी उत्साह से भाग लेते थे। यह उत्सव सामान्यतया सात दिन चलता था।इस बार महामाया ने यह उत्सव बड़े ही आमोद-प्रमोद, शान-शौकत एवं नशीली वस्तुओं के परित्याग के साथ मनाया। सातवें दिन प्रातः काल उठकर सुगंधित जल से स्नान किया। चार लाख कार्षापणो का दान दिया। अच्छे वस्त्र पहने तथा उत्तम आहार किया। दिनभर आमोद-प्रमोद के पश्चात रात्रि में वह अपने सुसज्जित शयनागार में पति के साथ सो गई। निद्रा-ग्रस्त महामाया ने स्वप्न में सुमेध नामक बोधिसत्व को देखा। वह महामाया का पुत्र बनना चाहता था। महामाया ने उसके प्रस्ताव को सानंद स्वीकार किया। उसी समय महामाया की आंख खुल गई। दूसरे दिन महामाया ने शुद्धोधन से अपने स्वप्न की चर्चा की। राजा ने स्वप्न-विद्या के प्रसिद्ध आठ ब्राह्मणों राम, ध्वज, लक्ष्मण, मंत्री, कोडञ्ज, भोज, सुयाम और सुदत्त को बुलावा भेजा। उनका यथोचित सम्मानकर, दान-दक्षिणा से संतुष्ट करने के पश्चात राजा ने उनसे महामाया के स्वप्न का अर्थ पूछा। ब्राह्मणों ने बताया कि आपके यहां बड़ा ही प्रतापी पुत्र होगा। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती राजा होगा और यदि गृहत्याग कर सन्यासी हुआ तो बुद्ध बनेगा। वह विलक्षण बुद्धि से संपन्न होगा तथा मनुष्यो को अज्ञान से मुक्त करेगा।
समाचार सुनकर पूरे राज्य में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। महल में भी दास-दासियों सहित सभी के हृदय-कमल खिल उठे। महामाया को किसी प्रकार का कष्ट ना हो इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाने लगा। राजा भी अत्यंत प्रसन्न थे, किंतु ब्राह्मणों की एक बात उनके मस्तिष्क में हलचल पैदा कर रही थी। उन्हें आशंका थी कि उनका पुत्र सन्यासी न बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो राज्य का क्या होगा, मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा ? इसी चिंता और प्रसन्नता के द्वंद्व में फँसे थे। इसी उहापोह में समय व्यतीत होता चला गया।
 प्राचीन काल से बौद्ध समाज की कुछ प्रमुख विशेषताएं –
1. बौद्ध समाज के सभी सदस्य परस्पर एक दूसरे को सम्मान मानते रहे हैं।
2. बौद्ध समाज के सभी सदस्यों को शिक्षा प्राप्त करने की सामान स्वतंत्रता रही है।
3. बौद्ध समाज के सभी सदस्यों को कोई भी पेशा कर सकने की स्वतंत्रता रही है।
4. बौद्ध समाज की स्त्रियों को पुरुषों के समान ही अधिकार रहे हैं।
संक्षेप में कहना हो तो यही कह सकते हैं कि बौद्ध समाज वर्षा आश्रम धर्म रूपी बेडियों  से सर्वथा स्वतंत्र रहा है।
लेखक — सूरज पाण्डेय (गुवा)

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