
सरायकेला: सरायकेला-खरसावां जिले के गम्हरिया प्रखंड में स्थित सीतारामपुर जलाशय अब सिर्फ जल संग्रहण का केंद्र नहीं रहा, बल्कि जनजातीय परिवारों के लिए उम्मीद की नई किरण बन चुका है। पहली बार यहां “धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान योजना” के तहत केज पद्धति से वैज्ञानिक तरीके से मछली पालन शुरू हुआ है।
करीब 70 हेक्टेयर में फैले इस जलाशय का निर्माण 1960 के दशक में सिंचाई के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इसके चलते करीब 1300 परिवारों को अपनी ज़मीन और आजीविका से हाथ धोना पड़ा। वर्षों बाद इन विस्थापित परिवारों को 2007 में परंपरागत मछली पालन से जोड़ा गया, लेकिन तकनीक के अभाव में लाभ सीमित ही रहा।
अब 2024-25 में शुरू हुई केज पद्धति ने तस्वीर बदल दी है। योजना के तहत 8 लाभुकों को कुल 32 फ्लोटिंग केज यूनिट दिए गए हैं। हर यूनिट में चार घेरे हैं, जो जीआई पाइप और मजबूत जाल से बने हैं। इन्हें इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि कछुए जैसे जलीय जीव भी इन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकते।
इन केजों में वैज्ञानिक चयन की गई मछली की अंगुलिकाएं डाली जाती हैं और रोज़ संतुलित आहार दिया जाता है। पानी की गुणवत्ता की लगातार निगरानी से मछलियों का बेहतर विकास संभव हो सका है।
यह योजना केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चलाई जा रही है, जिसमें लागत का 90% हिस्सा अनुदान स्वरूप और 10% लाभुक द्वारा वहन किया जाता है। योजना के क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी सीतारामपुर मत्स्यजीवी सहयोग समिति के पास है।
इससे पहले भी यहां मछली-सह बत्तख पालन, परंपरागत नाव योजना और गिल नेट जैसी विधियां अपनाई जाती थीं, लेकिन केज पद्धति से उत्पादन में 8 से 10 गुना तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
विपणन की बेहतर व्यवस्था के लिए झास्कोफिश के सहयोग से समिति को कार्यालय शेड, वाहन और आइस बॉक्स जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं ताकि मछलियों को आसानी से बाजार तक पहुंचाया जा सके।
इस योजना ने न सिर्फ आजीविका का एक सम्मानजनक जरिया मुहैया कराया है, बल्कि समुदाय को आत्मनिर्भर बनने की राह पर भी अग्रसर किया है। मछली उत्पादन में आई तेज़ी ने न केवल आर्थिक स्थायित्व दिया, बल्कि भविष्य में जल पर्यटन जैसे क्षेत्रों के लिए भी संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।